(जैसा रुचिका ठुकराल को बताया गया)
मैं एक आम लड़का हूँ जिसे लड़कियों का कोई अनुभव नहीं था
यह लेख उन सभी बेचारे लोगों की मदद के लिए है जिन्हे मेरी तरह लड़कियों के बारे में कोई भी अनुभव नहीं है. अब ये अनुभव मम्मी डैडी की लड़कों के स्कूल के चुनाव के कारण हो, पहाड़ों में कम आबादी वाले शहरों में रहने के कारण हो या फिर एग्जाम में हमेशा व्यस्त रहने के कारण हो सकता है या फिर मेरी तरह ये तीनो कारण मिल कर आपको इतना अनाड़ी बना सकते हैं. आप चाहें तो मुझसे सहानुभूति रख सकते हैं या फिर बस मेरी इस आपबीती से कुछ सीख ले सकते हैं की किस तरह अपनी नव विवाहिता पत्नी का भरोसा जीतें.
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हमारी अरेंज्ड मैरिज कैसे हुई, ये कोई दिलचस्प कहानी नहीं है मगर दिलचस्प बात ये है की सगाई और शादी के बीच के अंतराल में हम दोनों बिलकुल बातचीत नहीं की. इसका कारण मेरे ख्याल से उसका दिल्ली वाली लड़कियों वाला घमंड था और उसके ख्याल से मेरा सुपर मेलईगो. मेरी माँ का मानना था की उसकी माँ का धूर्त शकुनि वाला दिमाग इसके पीछे रहा होगा और उसकी माँ को लगता रहा की कुछ तो शादी के बाद के लिए भी छोड़ना चाहिए, इसलिए हमने बात नहीं की.
उसे खुश होना चाहिए था
तो जब शादी के तुरंत बाद मैं अपनी “शहरी” बीवी के साथ दिल्ली शिफ्ट हुआ.मैंने गौर किया की वो “खुश नहीं है”. असल में ये मेरी माँ के शब्द थे. उन्होंने कहा था, “अगर लड़की शादी के बाद खुश न हो तो ये अपशगुन होता है.” मैंने माँ से पुछा की हम क्या करें कि मेरी पत्नी खुश हो जाये. माँ को ये प्रश्न ही बड़ा उटपटांग लगा, “अरे, तुम्हे कुछ क्यों करना है? उसे तो खुश होना ही चाहिए.” बात मुझे थोड़ी अजीब लगी. मैं खुद कोई ख़ास खुश नहीं था. खुश कैसे होता, जिससे मेरी शादी हुई थी, मैं उसे ठीक से जानता भी नहीं था. क्या पता वो कोई सीरियल किलर ही हो.
क्या पता वो कोई सीरियल किलर ही हो.
“अरे, ये तो बस नखरे हैं,” माँ ने मुझे एक और बेढंगा सा तर्क दिया. उन्होंने ये बात मन ही मन मान ली थी की मेरी पत्नी उनके जाने का इंतज़ार कर रही है और उनके रहते वो खुश नहीं होगी. अजीब तो मुझे भी लग रहा था, मगर मेरे कारण उनसे बिलकुल भिन्न थे. वो लड़की कुछ खाती ही नहीं थी और अगर खाती भी थी तो अकेले, सबसे अलग थलग. हम दोनों अनगिनत रिश्तेदारों के घर खाने पर गए मगर उसने कुछ नहीं खाया. एक रोटी के कुछ टुकड़े खा कर उसका खाना हो जाता था. मैं इतना चावल प्रेमी हूँ की उसकी वो रोटी मुझे खतरे का अंदेशा दे रही थी. माँ का एक और तर्क आया. अरे खाने में बहुत नकचढ़ी होगी या क्या पता, हम दिल्ली के नहीं है तो उसे हमारे साथ शर्मिंदगी होती होगी,” माँ ने मुझे समझाया.
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कहीं उसे पुराने प्रेमी की याद तो नहीं आती
मेरे एक कजिन ने मुझे सलाह दी की मैं उसे लेकर किसीबढ़िया से रेस्तौरां में जाऊं. “दिल्ली की लड़कियां कितने लड़कों के साथ घूमती है शादी के पहले. तुमसे उसकी बहुत सारी उम्मीदें होंगी,” उसने मुझे समझाया. सही ही तो कह रहा था वो. मैं था क्या उसके सामने. मेरी तो आजतक एक गर्लफ्रेंड भी नहीं थी और पता नहीं इसने अब कब कितने अनुभव किये होंगे लड़कों के साथ. और इस बात से मन में एक और ख्याल आ गया. कहीं ये अपने पुराने बॉयफ्रैंड्स को मिस तो नहीं कर रही? या क्या उसकी कोई गर्लफ्रेंड थी? अरे, आखिर दिल्ली की लड़की है!
“मुझे लगता है की उसे तुम पर भरोसा नहीं है,” मेरे सबसे प्रिय मित्र ने एक दिन मुझसे कहा. “मेरा मतलब तुम ही सोचो की वो खाना खुद ही क्यों आर्डर करती है? कभी तुमसे क्यों नहीं बताती ताकि तुम ही उसके लिए भी आर्डर कर दो?” अपने दोस्त की बात में मुझे दम लगा. मगर मैं अब उसका भरोसा कैसे जीतूं? क्या मैं उसे अपने सारे बैंक अकाउंट की डिटेल दे दूँ? क्या मैं उसे ये बोल दूँ की वो चाहे तो नौकरी छोड़ सकती है, मैं उसका पूरा ख्याल रखूंगा? मैंने जब उसके सामने अपनी ये नौकरी वाली सलाह रखीं, उसने मुझे अजीब सी नज़रों से देखा और कहा, “मुझे अपना काम पसंद है. थैंक यू.”
“ये उसके मायके का मोह है बेटा, ” एक दिन जब वो टेबल पर खाना परोस रही थी तब बुआ ने मुझे किचन में कहा. “वो अभी तुम्हे प्यार नहीं करती है. एक लड़की को अपनी पति को प्यार करना चाहिए… तुम भी उसे प्यार कर सकते हो,” बहुत सोच और अटक कर बुआ ने वो दूसरी बात बोली. अच्छा, मतलब मैं प्यार कर “सकता” हूँ मगर उसे प्यार करना “चाहिए”. मैं समझ गया की मुझे अपने परिवार की इन महिलाओं से सलाह लेना तुरंत बंद करना होगा. इनकी सलाह कभी मुझे और मेरी पत्नी को करीब नहीं आने देगी. मैं कैसे उस स्त्री को प्यार करूँ जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता. और जानूं भी कैसे. हर रोज़ इतने लंच का आमंत्रण और हज़ारों लोगों के बीच में बैठ कर हम एक साथ बैठ कर भी कभी अकेले नहीं होते थे. और इसके अलावा उसने ये एक अजीब आदत पैदा कर ली थी की वो हमेशा चम्मच और कांटे किचन में ही भूल जाती थी और हम जब भी खाने बैठते, किसी को उठ कर वो सब लाने किचन में जाना ही पड़ता.
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और फिर हमें अकेले कुछ वक़्त मिला
मैं तो उसे अपनी खुशकिस्मती ही कहता हूँ जब मेरे माता पिता को अचानक जाना पड़ा और हमें उन छोटी छोटी पार्टी का न्योता आना बंद हो गया. मेरी पत्नी न मुझे प्यार करती थी, न मुझ पर भरोसा. वो मेरे साथ खुश नहीं थी और शायद वो दिल्ली के आधे से ज़्यादा लड़कों के साथ घूम चुकी थी. मुझे थोड़ी सी शान्ति का हक़ था और मेरी शादी के इर्द गिर्द जो ये सर्कस था, मुझे उससे निकलना था. इन्ही विचारों में उलझा एक दिन जब मैं घर पंहुचा तो जो देखा उससे मेरे होश ही उड़ गए. मेरी पत्नी खाना खा रही थी और खाने में था चावल जो वो हाँथ से बहुत ही तस्सली से खाने में मग्न थी. मुझे घर जल्दी देख कर वो भी मेरे जितनी ही भौचक्की रह गई. उसने हाँथ चाट कर साफ़ किया और कहा, “मुझे छुरी चाकू से खाना नहीं आता और तुम्हारे उन हाई-फाई रिश्तेदारों के बीच तुम्हे शर्मिंदा नहीं करना चाहती थी. उस दिन उसकी बात सुन कर मैंने एक बहुत ही ज़रूरी बात समझी. अगर वो मुझसे ये छोटी सी बात शेयर नहीं कर सकती थी तो फिर और कुछ साझा कैसे करती. उसे मुझ पर भरोसा नहीं था. तो उस दिन मैंने एक फैसला किया. चाहे उसके अनगिनत बॉयफ्रेंड रह चुके हो, वो नाखुश हो, मुझे प्यार न करे मगर मैं उस पर भरोसा करूंगा. मैं इस विश्वास के साथ चलूँगा की वो सही फैसले लेगी. क्योंकि ये विश्वास तो दोतरफा होता है और शायद ऐसा कर के हमदोनो के बीच की दूरियां ख़त्म हो जाये.
सच कहूँ तो अब तक तो ये उपाय कारगर साबित हुआ है. अब हम दोनों रेस्ट्रोरेन्ट में हाथ से बिरयानी खाते है, चाहे हमें पूरा स्टाफ और आस पास के लोग कितना भी घूर के देखें. और हाँ एक बात और, चावल का मज़ा हाथ से ही खाने में है.
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