क्या अपने साथी को सहारा देने के लिए खुद को अक्षम करना सही है?
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क्या हो अगर हर अंधे पुरूष की पत्नी देखने से इनकार कर दे, हर बहरे पुरूष की पत्नी सुनने से इनकार कर दे, या हर अपंग की पत्नी चलने से इनकार कर दे?
दुनिया अभिशप्त हो जाएगी!
महाभारत गांधार की सुंदर किशोर राजकुमारी गांधारी, जिसका विवाह अधेड़ उम्र के अंधे राजा के साथ हुआ था, उसकी कहानी के माध्यम से इसे बयान करता है। उन दिनों, इस स्पष्ट रूप से बेमेल विवाह पर किसी ने आपत्ति नहीं जताई, यहां तक कि बाकी युवा राजकुमारियों ने भी! उसने अपने पिता के वचन का सम्मान करने का बीड़ा उठाया और कुरूस के शक्तिशाली राजा धृतराष्ट्र से शादी करने पर वह खुश थी। अपने भविष्य के पति के साथ सहानुभूति रखने के लिए उसने अपनी आँखों पर एक सफेद सूती पट्टी भी बांध ली।
आस पास के, और स्वर्ग के लोगों ने उसके इस भव्य काम के लिए शायद उस पर आर्शीवाद भी बरसाए होंगे। वह कितनी वफादार है, उन्होंने सोचा होगा!
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उनका अंधापन किस तरह एक वास्तविक बाधा बन गई
गांधारी की खुद से उत्पन्न की गई दृष्टिहीनता जल्द ही पुण्य से पाप में बदल गई जब वह सही और गलत के बीच फर्क करने में असफल रही, इस प्रकार वह अपने पति जितनी ही कमज़ोर हो गई। विशेष साधनां से उत्पन्न हुए उनके 100 बेटे और एक बेटी सभी दुष्ट थे या फिर उन्होंने दुष्ट व्यक्ति के साथ विवाह किया था। महाभारत केवल दो मुख्य भाईयां दुर्योधन और दुशासन के बारे में ही बताता है जो घमंडी और लालची थे। वे अहंकार और इसके हानिकारक बल के नशे में चूर थे और उन्होंने सभ्यता और सच्चाई का हर नियम तोड़ दिया था। बदनसीब, अंधे माँ-बाप दुर्योधन की दुष्टता के बल का विरोध करने में असमर्थ थे, वह दुष्टता जो उनकी निरंतर अज्ञानता से और आगे बढ़ी। कर्म के नियम ने अपना काम किया, जिससे अंततः पूरा परिवार नष्ट हो गया।
इसकी बजाए एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना कीजिए जहां गांधारी खुद की आँखों पर पट्टी नहीं बांधती, बल्कि अपने पति की ताकत बन कर खड़ी रहती है। एक प्रतिनिधी के रूप में उसने पति के साथ शासन किया होता और शुरूआत से ही उसकी गणना एक शक्ति के रूप में होती। उसके बेटों को पता होता कि वे उनके हर किए के लिए उसके प्रति उत्तरदायी हैं और उसकी इच्छाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता।
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उसके बेटों को पता होता कि वे उनके हर किए के लिए उसके प्रति उत्तरदायी हैं और उसकी इच्छाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता।
वह स्त्री जिसने अपने पति को सकारात्मक सहारा दिया
मुझे मेरी एक पुरानी सहेली की कहानी याद आ गई। उसके पिता, जो उस समय अपने 40वें दशक में थे, उन्हें लकवा मार गया और उनके पैर बेकार हो गए। उसकी माँ ने ना सिर्फ चलना बल्कि आगे बढ़ना भी जारी रखा। उनके पास पहले ही एक नौकरी थी जो उन्होंने जारी रखी। परिवार ने एक विशेष कार मंगवाई जो पूरी तरह हाथों से संचालित की जाती थी जिससे वे सज्जन कार्यस्थल पर जाते थे और वापस लौटते थे। उन्हें बस कार में चढ़ते और उतरते समय व्हीलचेयर पर बैठने में मदद की ज़रूरत होती थी। मैंने सोचा की गांधारी को इस तरह के सकारात्मक उपाय करने से किस ने रोका था?
क्या वह एक सदाचारी, वफादार पत्नी की खुद की छवि में फंस गई थी? अगर उसने खुद की आँखों पर पट्टी नहीं बांधी होती, तो क्या वह खुद को बेवफा मानती और इस प्रकार खुद के ही अनुमान में गलत साबित होती? क्या स्वयं से उसकी अवास्तविक अपेक्षा पूरे परिवार को नष्ट करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी?
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यह खतरनाक है, यह वस्तु -पुण्य के रूप में छुपा हुआ पाप। ऐसा तब हो सकता है जब हम किसी विचार की सभी जटिलताओं के बारे में नहीं सोचते। यह तब होता है जब पुण्य को पूर्ण सामाजिक स्वीकृति और अनुमोदन प्राप्त होता है। मामलों को और जटल बनाने के लिए, कुछ विकलांगता और कमज़ोरियां हमेशा दिखाई नहीं देती हैं। और इससे उन्हें पहचानने और संभालने में और भी मुश्किल होती है।
सहायक कार्यवाही हमेशा सकारात्मक होनी चाहिए, निष्क्रिय नहीं
आधुनिक जोड़े के बारे में सोचें। उनके पास शासन करने के लिए साम्राज्य नहीं हैं, लेकिन उन्हें घर चलाना होता है और परिवार संभालना होता है। तो वे व्यक्तिगत कमज़ोरियों का सामना किस तरह करते हैं – कहिए सोशल मीडिया की लत? यह घातक रूप से संचार को नष्ट करते हुए अदृश्य होकर उभरता है और अदृश्य ही रहता है। अगर एक साथी आदी हो जाता है, तो दूसरा अकेला पड़ जाता है; प्रश्न है – क्या दूसरे को भी आदी हो जाना चाहिए? क्या यह अकेलेपन को दूर कर देगा? क्या यह एक जोड़े के बंधन को मजबूत करेगा? या एक स्वस्थ, संतुलित परिवार को बढ़ाने में मदद करेगा? एक ऐसी सकारात्मक कार्यवाही क्या हो सकती है जो एक आदी साथी की कमज़ोरी को कम करे और परिवार इकाई के संतुलन को बहाल करे? वह, और सिर्फ वही सकारात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए।
संबंध गतिशील होते हैं और कुछ अच्छे निर्णय लेने के माध्यम से उन्हें निरंतर संतुलन की आवश्यकता होती है। गांधारी और धृतराष्ट्र स्पष्ट उदाहरण हैं कि कैसे जोड़े ने एक साथी के भावनात्मक निर्णय के कारण अपनी ‘जोड़े’ की शक्ति खो दी। काश की उसे अहसास होता कि अगर एक नहीं देख सकता है तो दूसरे को देखना ही होगा! एक जोड़े को संतुलन बनाना चाहिए और एक दूसरे का पूरक होना चाहिए। तब, और केवल तभी वे एक मजबूत इकाई हैं!