क्या यह समानता है अगर अब भी पुरूष ही तय करे की उसे सहमति मांगनी है या नहीं?
शारीरिक अंतरंगता के एक पल में जब मैंने सोचा कि मेरा काफी पुराना साथी और मैं समान मनोस्थिति में हैं, तो वह रूका और उसने मुझसे पूछा, ‘‘तुम्हें इससे कोई परेशानी तो नहीं है ना? क्योंकि मैं तुम्हारा बलात्कार नहीं करना चाहता।” मैं इस बात से चिढ़ गई क्योंकि मुझे यह अपमान महसूस हुआ। ‘‘बेशक मुझे कोई परेशानी नहीं है क्योंकि अगर परेशानी होती तो मैं अब तक चुप नहीं रहती।”
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मैं समझ गई कि वह सही काम करने की कोशिश कर रहा था। मैं यही भी नहीं मानती कि ‘ना’ को शारीरिक रूप से ही अभिव्यक्त किया जाना चाहिए। किसी के द्वारा सुने या स्वीकार किए जाने के लिए, ‘ना’ को एक विशिष्ट स्वर या बयान किए जाने वाली टोन में ही कहने की ज़रूरत नहीं है।
किसी के द्वारा सुने या स्वीकार किए जाने के लिए, ना को एक विशिष्ट स्वर या बयान किए जाने वाली टोन में ही कहने की ज़रूरत नहीं है।
“मैं तुम्हें जाने दे रहा हूँ क्योंकि मैं एक बहुत अच्छा पुरूष हूँ”
लेकिन उसने जो कहा उससे एक समान संबंध के आभासी दर्पण में दोनों तरफ से दरार बन गई। ऐसा लग रहा था जैसे भले ही मेरे पास एजेंसी हो लेकिन शक्ति उसके पास थी, एक विचार जिसे हिंदी सिनेमा के माध्यम से लोकप्रिय संस्कृति का समर्थन मिला था।
इन फिल्मों में, मैंने सुनसान स्थानों में गांव के नायक और बिगड़ी हुई अमीर नाईका को देखा है और उन्हें अहसास दिलाया जाता है कि नायक चाहता तो औरत का बलात्कार कर सकता था जो इतनी बिगड़ी हुई थी लेकिन उसने ऐसा किया नहीं, क्योंकि वह बहुत अच्छा पुरूष था। इसके बाद, औरत अपना सबक सीख लेती है और बाकी की फिल्म में अपनी मर्यादा में रहती है।
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महिलाओं की भूमिका निष्क्रिय है
यह मुझे यौन गालियों के बारे में मेरी समस्या तक ले जाता है, यौन गालियां ऐसी लगती हैं जैसे सभी पुरूषों के पास अपनी माओं और बहनों का बलात्कार करने की शक्ति है, और जो ऐसा नहीं करते वे पुरूष विशुद्ध चरित्र के स्वामी हैं। यहां स्त्रियों की कोई भूमिका ही नहीं है; उन्हें जो मिलता है चुपचाप उसमें ही समझौता करना पड़ता है।
2015 की एक्शन थ्रिलर एनएच 10 एक अपवाद बनने की कोशिश करती है और इस विचार को चुनौती देती है, जिसमें मुख्य अभिनेत्री-निर्माता अनुष्का शर्मा एक अन्य महिला की, स्वयं की और अपने साथी की रक्षा करने के लिए लड़ती है। मैंने यह फिल्म थिएटर में देखी और हॉल में पुरूषों में उत्पन्न असुविधा उनकी बेहुदा हंसी से स्पष्ट थी जब अनुष्का सार्वजनिक टॉयलेट में ‘रंडी ’ शब्द मिटाने की कोशिश करती है या पुरूषों द्वारा उसका बलात्कार या हत्या करने के लिए पकड़े जाने की कगार पर होती है। ये माटी के लाल मनोरंजन पाने के लिए एक्शन ड्रामा देखने मल्टीप्लेक्स जाएंगे जो उन्हें इतना बहादुर बना देता है कि वे सोमवार को भी सहन कर लेते हैं। और स्त्री को ‘उनकी’ जगह पर देखना उन्हें खुश नहीं करता है, नहीं, यह उनका साप्ताहंत भी बिगाड़ देता है।
इसलिए लिंग मीडिया पर गीना डेविस इंस्टीट्यूट द्वारा 2014 के अध्ययन का निष्कर्ष भी हैरानी की बात नहीं था, जिसमें पता चला था कि महिलाओं का सेक्सुअलाइज़ेशन करने में भारतीय सिनेमा पहले स्थान पर है। ऑस्ट्रेलिया में एक भारतीय व्यक्ति अपराध सिद्धी से बच निकला जब उसके वकील ने तर्क दिया कि उसका क्लायंट हिंदी फिल्मों के प्रभाव में था, जो इस मिथक का समर्थन करती हैं कि महिला की ना एक फंतासी है जो शोषण किए जाने, परेशान किए जाने का अनुरोध कर रही है। 1997 की फिल्म हमेशा से ‘‘नीला दुपट्टा पीला सूट…’’ 2000 की जोश फिल्म से “अपुन बोला तू मेरी लैला…’’ जैसे गानों में ऐसी लाइने हैं जो ज़ोर देती है कि स्त्री की ना को स्वीकृति माना जाना चाहिए। और औरतों से जबरदस्ती हां बुलवाने या उनके ना को नज़रंदाज़ करने के लिए पुरूषों को महिलाओं पर उनकी हर शक्ति का इस्तेमाल करने का लायसेंस प्राप्त है और स्त्रियों के पास तो कोई शक्ति होती ही नहीं है।
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बोझ सिर्फ पुरूषों पर है
सहमति की अवधारणा एक और तरीके से समानता को अपमानित करती है, पूछने का बोझ पूरी तरह पुरूषों पर डाल कर। मैंने हाल ही में एक कॉलेज की छात्रा से मुलाकात की जिसने स्वीकार किया कि सहमति पर हालिया चर्चाओं की वजह से उसने महसूस किया था कि पार्टियों में उसने नशे की हालत में पुरूषों से सहमति पूछे बिना उन्हें किस करने की गलती की है। एक और मिलेनियल दोस्त ने मुझे बताया कि जब उसकी डेट ने किस करने से पहले उससे पूछा, तो वह दुखी हो गई क्योंकि उसकी कार्यात्मक बातचीत ने रोमांटिक सैटिंग को बर्बाद कर दिया था। फार्मेसी जाने के रास्ते पर जब मेरे साथी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं किसी विशेष ब्रांड का कंडोम पसंद करती हूँ, तो मुझे याद है कि मैं झिझक गई थी। मुझे लगा कि अगर किसी औरत की इच्छा और खुशी के लिए समान विचार रखने वाले व्यक्ति के प्रति मेरी सहज प्रतिक्रिया यह थी, तो ज़रूर कुछ गड़बड़ है।
एक पुरूष द्वारा अपनी इच्छा व्यक्त करना सिनेमा में आम बात है, जबकि स्त्री संकोच में मुस्कुराती है, आँखें यहां-वहां घुमाती है, और सिर हिलाती है। इससे यह संदेश दिया जाता है कि अगर वह पुरूष के अनुरोध को स्वीकार कर लेती है तो वह ऐसा सिर्फ उस पुरूष की इच्छा को पूरा करने के लिए करती है और वह इसे अपना कर्तव्य मानती है।
क्या “प्यार” आपको सहमति को नज़रंदाज़ करने का अधिकार देता है?
मैंने इस पर गहराई से विचार किया और महसूस किया कि लोकप्रिय मीडिया ने हमें सुरक्षित और सहमत सेक्स के बारे में बातचीत करने की बजाए लवमेकिंग के रोमांस में ज़्यादा व्यस्त रखा है। जग्गा जासूस (2017) तनु वेड्स मनु (2011) और लाइफ इन ए मेट्रो (2007) जैसी फिल्मों में मुख्य पुरूष किरदार माचो से विकसित होकर संवेदनशील, विनम्र बन गए हैं। हालांकि, वे भी उन महिलाओं को चूमने के लिए निर्देशित पास प्राप्त कर सकते हैं, जो सो रही हैं और हां या ना कहने की स्थिति में नहीं हैं। कहानी में कहीं भी इस व्यवहार को गलत नहीं बताया गया है, क्योंकि यह बात पहले ही स्थापित कर दी गई है कि पुरूष ने यह कार्य हवस में आकर नहीं किया था बल्कि यह उसका सच्चा प्यार था।
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इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इंटरनेशनल सेंटर फॉर रीसर्च ऑन विमेन द्वारा भारत में किए गए सर्वेक्षण में 9000 पुरूषों में से 60 प्रतिशत ने स्वीकार किया कि वे किसी ना किसी समय अपने साथी के प्रति हिंसक थे। और 2015 की एक डब्ल्यूएचओ रिपोर्ट में पाया गया कि दुनिया में अनचाहे गर्भधारण की सबसे ज़्यादा संख्या (17.1 प्रतिशत) भारत में है।
ना चाहो, ना पूछो
ऐसी स्थितियां यह भी साबित करती हैं कि सहमति मांगने को आपसी ज़िम्मेदारी माना जाना चाहिए। भारतीय निर्देशक पारोमिता वोहरा की फिल्म, दि अमोरस एडवेंचर्स ऑफ मेघा एंड शाकू, इसे स्थापित करने का एक उत्कृष्ठ काम करती है। यह हर उम्र की महिला को अपनी कंडीशनिंग पर सवाल उठाने के लिए प्रेरित करती है (एक महिला द्वारा अपनी इच्छा व्यक्त करने के विचार के साथ शर्मिंदगी और अनुचित कार्य को जोड़ना) और उन्हें अपनी ‘हाँ’, ‘ना’, ‘शायद’ को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने के लिए प्रेरित करती है।
2016 की फिल्म लिपस्टिक अंडर माय बुर्खा भी यह दिखाती है कि कैसे भारतीय समाज इच्छा और सहमति को महिलाओं से दूर रखने का प्रयास करता है। यह तथ्य कि इस फिल्म को सेंसरशिप के खिलाफ कड़ी लड़ाई लड़नी पड़ी, जबकि ऐसी फिल्मों को फिल्म सर्टिफिकेशन बोर्ड द्वारा आसानी से हरी झंडी मिल जाती है जिनमें महिलाओं को पुरूषों के उपभोग की एक सामग्री दर्शाया जाता है, यह हिंदी फिल्म उद्योग में अंतर्निहित लिंग पूर्वाग्रह का खुलासा करता है।
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सहमति दोनों तरफ से होनी चाहिए
जैसे की हमेशा पुरूष को ही महिला से डेट पर ले जाने की अनुमति मांगना ज़रूरी नहीं है या संबंध में शारीरिक अंतरंगता को आमंत्रित करने की ज़िम्मेदारी हमेशा पुरूषों की नहीं होनी चाहिए, वैसे ही स्त्री वह व्यक्ति हो सकती है जो यह पूछे कि क्या उसे इससे कोई परेशानी तो नही है।
जैसे की हमेशा पुरूष को ही महिला से डेट पर ले जाने की अनुमति मांगना ज़रूरी नहीं है या संबंध में शारीरिक अंतरंगता को आमंत्रित करने की ज़िम्मेदारी हमेशा पुरूषों की नहीं होनी चाहिए, वैसे ही स्त्री वह व्यक्ति हो सकती है जो यह पूछे कि क्या उसे इससे कोई परेशानी तो नही है।
और अगर दोनों सोचते हैं कि पूछना उनका कर्तव्य है, तो कोई भी इसे रोमांटिक रिश्ते के दायरे से बाहर नहीं देख पाएगा। यह उस घिसी पिटी और अनिश्चित अवधारणा को भी खत्म कर देगा कि पुरूषों द्वारा महिलाओं को ना कहना कितना कठोर या असहज है। (एक बार मैं एक ऐसे पुरूष को डेट कर रही थी जो अपनी चीटिंग को अपना सज्जन जैसा व्यवहार बता रहा था, कि वह इतना ज़्यादा सज्जन था कि वह एक औरत की पहल से इंकार नहीं कर सकता था।)
सहमति की जड़ें हमारे मन में हर किसी के लिए सम्मान में होनी चाहिए, उस मूल संवेदनशीलता में होनी चाहिए कि हम आस पास के लोगों के साथ किस तरह बात करते हैं। इसे इस बात पर निर्भर नहीं होना चाहिए कि किसी परिस्थिति में शारीरिक बल दिखाने में कौन सक्षम है या इससे बाहर निकलने में कौन चपलता दिखाता है। जब हम कहते हैं कि हम किसी का उल्लंघन नहीं करेंगे तो यह ऐसा ही होना चाहिए जैसे की हम नहीं कर सकते थे, क्योंकि हम इस विचार से ही थरथरा जाते हैं। मुख्यधारा के अधिकांश हिंदी सिनेमा को अभी भी यह सीखने की ज़रूरत है।